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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 10 
"धर्म की व्याख्या बहुत विशद है । इसके अनेक तत्व होते हैं । जिस प्रकार एक गजराज के अनेक अंग होते हैं जैसे सूंड , पैर, पूंछ , पीठ और पेट तथा दांत आदि । यदि कुछ अंधे लोग गजराज को देखें और उसे छुऐं तो जिसके हाथ में गजराज का जो अंग आयेगा उसे गजराज वैसा ही महसूस होगा । एक अंधे के हाथ में अगर हाथी की सूंड आ गई तो वह कहेगा कि हाथी लंबा सा गोल गोल सा होता है । जिसके हाथ में उसका पैर आ गया तो वह कहेगा कि हाथी खंभे सा होता है । जिसके हाथ में पूंछ आ गई तो वह कहेगा कि हाथी पतला सा लंबा सा होता है जिसके एक सिरे पर बाल होते हैं । पर क्या वास्तव में हाथी वैसा ही होता है जैसा प्रत्येक अंधा वर्णन करता है ? वस्तुत: वे लोग समग्र रूप से गजराज को नहीं जानते यद्यपि वे उसे वे एक अंग के आधार पर आंशिक रूप से जानते हैं और उसी के आधार पर उसे गजराज मान लेते हैं । दरअसल धर्म की स्थिति भी वैसी ही है । लोग उसके एक तत्व को जानकर स्वयं को तत्वदर्शी समझने लग जाते हैं । पर वे लोग तत्वदर्शी नहीं होते अपितु अविवेकी ही होते हैं । तत्वदर्शी वही होता है जिसने धर्म को समग्र रूप में समझ लिया है । कभी कभी दो धर्मों के बीच विरोधाभास हो सकता है । जो अविवेकी मनुष्य हैं वे मतिभ्रम के कारण अपने कर्तव्य कर्म के बारे में उचित निर्णय नहीं ले पाते हैं और पतन का कारण बन जाते हैं लेकिन जो विवेकवान हैं वे धर्म को समग्र रूप से जानते हैं और परम धाम को प्राप्त होते हैं । राजा शिबि का आख्यान भी ऐसा ही है जो हमें धर्म के समग्र रूप से परिचित कराता है । आपको वह आख्यान अवश्य ही जानना चाहिए, राजन" । शुक्राचार्य जी ने महाराज वृषपर्वा से कहा । 

"एक समय की बात है जब यमुना नदी के किनारे शिबि देश का राजा उशीनर था जिसे राजा शिबि भी कहा जाता है । वह राजा धर्म का जानकार और तत्वदर्शी था । वह न केवल बुद्धिमान राजा था अपितु विवेकवान और परम विद्वान भी था । एक दिन वह अपने महल की वाटिका में बैठकर प्रकृति का आनंद ले रहा था और अपनी पत्नी के साथ प्रणय सूत्र के धागों में उलझ रहा था । वह रानी को न केवल प्रेम शास्त्र का अध्ययन करा रहा था अपितु अपने क्रिया कलापों से उसे व्यावहारिक ज्ञान भी दे रहा था । दोनों पति पत्नी प्रेम रस रूपी प्याले का सानंद पान कर रहे थे कि अचानक एक कबूतर राजा की गोद में आकर गिरा और वह सहम कर राजा के अंक में छुप गया । 

राजा शिबि उस डरे हुए कबूतर को देखकर उस पर अपना हाथ फिराने लगे और उसे सांत्वना देने लगे । कहने लगे "डरो नहीं वत्स । अब तुम राजा शिबि के आश्रय में हो और राजा शिबि का सिद्धांत है कि जो भी व्यक्ति या जीव जंतु एक बार उसकी शरण में या उसके आश्रय में आ जाये तो वे अपना सर्वस्व त्याग कर भी उसकी रक्षा करते हैं । इसलिए वत्स , अब भय न करो । अब आप पूर्ण रूप से सुरक्षित हो" । कहकर राजा शिबि ने कबूतर के मस्तक पर उसी प्रकार हाथ फेरा जिस प्रकार एक पिता अपने नन्हे पुत्र के मस्तक पर हाथ फेरता है । उसे सुरक्षा का विश्वास दिलाता है । तत्पश्चात राजा शिबि ने अपने चारों ओर देखा तो उसे अपने सामने ही एक बाज बैठा हुआ दिखाई दिया । राजा समझ गया कि इस बाज से डरकर ही यह कबूतर भागा था और संयोगवश उसकी गोदी में आकर गिर पड़ा था । लेकिन अब स्थिति बदल गई थी । वह कबूतर अब अनाथ नहीं रहा है । वह राजा शिबि के आश्रय में आ चुका है इसलिए अब वह सुरक्षित है । 

राजा शिबि अभी इस बारे में सोच ही रहे थे कि वह बाज बोल उठा "हे धर्मात्मा ! आप तो धर्म को जानने वाले हैं । तत्वदर्शी हैं, विवेकवान हैं । आप सदा ही न्याय करते हैं मगर इस बार आप मेरे साथ अन्याय क्यों कर रहे हैं" ? 

बाज की गंभीर बातें सुनकर राजा शिबि आश्चर्य चकित हो गये । एक बाज बोल भी सकता है ? यह पहली बार उन्हें ज्ञात हुआ । इसलिए वे बाज से पूछने लगे "हे श्येन ! आप कौन हैं ? क्या आप गरुड़ हैं ? बाज का रूप धरने वाले कोई देवता , गन्धर्व या राक्षस हैं या कोई और हैं ? आपका यहां आने का प्रयोजन क्या है ? आप सब बातें स्पष्ट रूप से मुझे बतायें" 

बाज बोला "हे महाराज , मैं एक बाज हूं । मैं न तो कोई देव हूं और न ही कोई गन्धर्व या राक्षस हूं । मैं कई दिन से भूखा हूं । बड़ी मुश्किल से आज एक शिकार यह कपोत हाथ आया है लेकिन आपने इसे शरण दे रखी है । अत: मैं दुविधा में पड़ गया हूं" 
"कैसी दुविधा ? मैं कुछ समझा नहीं । कृपया साफ साफ कहो , बात क्या है" ? राजा ने कहा 
"तो सुनो राजन ! ये कपोत मेरा शिकार है जिस पर मेरा अधिकार है । मैं बहुत दिनों से भूखा हूं । भूख से मेरे प्राण निकल रहे हैं । इसलिए आप मुझ पर दया करके इस कपोत को मुझे सौंप दीजिए जिससे मैं अपनी क्षुधा शान्त कर सकूं"  । बाज ने तनिक रोष से कहा 
"आपका क्रोधित होना सही है । आप मुझे धर्मज्ञ भी नजर आ रहे हैं । पर आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि यह कपोत मेरे आश्रय में आ चुका है इसलिए अब मैं इसे आपको नहीं दे सकूंगा क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि ब्राह्मण, गौ , स्त्री और शरणागत की रक्षा करना एक राजा का धर्म है । अत: मुझे अपने धर्म का पालन करने दीजिए" । 
"जिस प्रकार आपका धर्म है अपनी शरण में आए हुए की रक्षा करना । उसी प्रकार मेरा धर्म है अपनी क्षुधा शान्त करना । मैं एक मांसाहारी जीव हूं इसलिए किसी न किसी जीव को मारकर खाना ही मेरा धर्म है । आज मेरे हाथ यह कपोत आ गया है इसलिए इस कपोत पर अब मेरा अधिकार है । आप मेरे धर्म पालन में व्यवधान उत्पन्न कर रहे हैं जो आप जैसे धर्मज्ञ राजा को शोभा नहीं देता है । अत: अब विलंब न कीजिए और मेरा आहार मुझे सौंप दीजिए" । बाज भी अपनी बात पर अड़ गया । 

राजा शिबि ने जान लिया कि यह बाज कोई साधारण बाज नहीं है । यह धर्म तत्व को जानने वाला है इसलिए इसे यहां से टालना आसान काम नहीं है । तब राजा शिबि बोले "हे तत्वदर्शी ! इतना तो सोचिए कि हिंसा करना धर्म के विरुद्ध है । आप इसे मारकर खाना चाहते हैं जो कि हिंसा की श्रेणी में आता है । इसलिए हे तत्व ज्ञानी आपको हिंसा से बचना चाहिए" । 
"हे राजन ! जीव जंतुओं को मारकर खाना मेरा धर्म है । किसी भी जीव जंतु को जीवित रहने के लिए आहार की आवश्यकता होती है । आहार से वीर्य बनता है और वीर्य से सन्ततोत्पत्ति होती है । सन्ततोत्पत्ति से पितृ यज्ञ संपन्न होता है । इस प्रकार यदि आप मुझे इस कपोत को नहीं दोगे तो आप मेरे धर्म में व्यवधान उत्पन्न कर रहे हैं जिसका परिणाम आपके पतन के रूप में परिलक्षित होगा" । 

राजा शिबि सोचने लगे । "यह श्येन सही कह रहा है । जिस प्रकार मेरा धर्म है शरणागत की रक्षा करना उसी प्रकार इस बाज का भी धर्म है अपनी क्षुधा शान्त करना । यदि यह अपने धर्म का पालन कर रहा है तो इसमें गलत क्या है" ? 
फिर वे बाज से कहने लगे "आपका कहना सही है धर्म मर्मज्ञ ! इस कपोत का भक्षण करके आप अपने धर्म का पालन कर रहे हैं और मैं इसे आश्रय देकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं । लेकिन यहां आपका और मेरा , दोनों का धर्म परस्पर विपरीत दिशा में जाते हुए से प्रतीत हो रहे हैं । ऐसी स्थिति में हमें समग्र रूप में धर्म तत्त्व के अनुसार आचरण करना चाहिए । मेरा एक प्रस्ताव है । आप कोई दूसरा जीव जंतु मारकर खा लें, उसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है" । राजा शिबि के चेहरे पर दृढ़संकल्पता के भाव थे । 
"राजन , आपने जो बातें कही हैं वे शास्त्रोक्त हैं । वैसे एक बात है कि अन्य जीव की हत्या भी तो हिंसा ही है । हिंसा तो हिंसा है वह चाहे कपोत को खाने में हो या अन्य किसी जानवर को खाने में । और ये कैसा तर्क है आपका कि कपोत को छोड़कर अन्य किसी को खा लूं ? क्या ये धर्मानुकूल है ? माना कि आप अपनी तर्क शक्ति से इस कृत्य को धर्मानुकूल सिद्ध कर दें तो भी मेरा मन आज इस कपोत को ही खाने का है, अन्य किसी जानवर को खाने का नहीं है । इसलिए अब आप देर नहीं करें और मेरा आहार मुझे प्रदान करें" । बाज के स्वर में क्रोध था । 

बाज की बात सुनकर राजा शिबि सोच में पड़ गये । बाज का कथन सौ प्रतिशत सत्य था । वे धर्म को समग्र रूप में जानते थे । कपोत को बचाने का अब एक ही उपाय था । उन्होंने उस पर बहुत मनन किया फिर दृढ़ निश्चय करके बोले "हे श्येन, आप बहुत प्रतापी और बुद्धिमान हैं, धर्म शील हैं मगर यह भी उतना ही सत्य है कि मैं अपने शरण में आये हुए को छोड़ नहीं सकता हूं । पर मैं आपके धर्मानुकूल आचरण को निषिद्ध भी नहीं करना चाहता हूं । इसलिए मेरा निवेदन है कि आप इस कपोत के वजन के बराबर मेरे अंग का मांस ले लें और उससे अपनी क्षुधा की तृप्ति कर लें । मुझे विश्वास है कि इस तरह से हम दोनों के धर्म का पालन हो सकेगा" । 
"राजन आपका प्रस्ताव उचित प्रतीत हो रहा है । आप एक तराजू मंगवा लें और कपोत को तोलकर उतना अपना मांस मुझे दे दें जिससे मेरी क्षुधा शांत हो जाये" । बाज ने प्रसन्नता से कहा । 

राजा ने अपने अनुचरों को आदेश दिया और वे एक तराजू ले आये । उस तराजू के एक पलड़े में कपोत को बैठा दिया और एक हाथ में चाकू लेकर राजा शिबि ने अपनी जांघ में से मांस का एक लोथड़ा काट कर तराजू के दूसरे पलड़े में रख दिया । कपोत वाला पलड़ा अभी भी भारी था । तब राजा ने अपनी दूसरी जांघ का मांस भी निकाल कर उसमें रख दिया । इसके बाद भी कपोत वाला पलड़ा भारी निकला । 

राजा शिबि आश्चर्य से कपोत को देखने लगे । इस कपोत में इतना वजन कैसे है ? कहीं ये कोई मायावी कपोत तो नहीं है ? पर जो भी हो, अब इस में सोचना क्या ? उन्होंने अपनी एक भुजा काटकर दूसरे पलड़े में रख दी । वह पलड़ा अभी भी हल्का था । तब राजा उस पलड़े में ही बैठ गया कि अब तो और कोई विकल्प शेष नहीं है । इस पर वह पलड़ा भारी हो गया । इतने में वह बाज एक सुन्दर देवता में परिवर्तित हो गया । राजा ने कपोत की ओर देखा तो वह भी एक सुन्दर देवता में परिवर्तित हो चुका था । तब राजा ने कहा "हे महानुभावो, आप कौन हैं और कहां से आये हैं" ? 

तब बाज से देवता बने हुए उस व्यक्ति ने कहा "हे राजन, मैं इन्द्र लोक का स्वामी इन्द्र हूं और ये कपोत अग्निदेव हैं । हम आपके धर्म के ज्ञान की परीक्षा ले रहे थे । आपको धर्म की बहुत गहरी समझ है । आप जैसा धर्म शील राजा और कोई नहीं है । अत: आप परीक्षा में सफल हुए । आप कोई भी वर मांग सकते हैं" । 

राजा शिबि को उनकी सत्यता जानकर बहुत आश्चर्य हुआ । तब तक उनका शरीर पहले जैसा हो चुका था । राजा ने दोनों हाथ जोड़कर कहा "हे देवराज ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे कोई वर देना ही चाहते हैं तो मुझे यह वर दीजिए कि मैं अपने धर्म के आचरण से किसी भी परिस्थिति में नहीं डिगूं । ऐसी दृढता दीजिए" राजा शिबि ने विनय पूर्वक कहा । 
"आप धन्य हैं राजन । आपने मांगा भी तो क्या मांगा ? धर्म आचरण में दृढ़ता । आप जैसे धर्म मर्मज्ञ राजा से मुझे यही उम्मीद थी" । 'तथास्तु' कहकर वे अंतर्धान हो गये । 
"हे महाराज वृषपर्वा ! इस आख्यान से हमें धर्म की स्पष्ट व्याख्या मिल जाती है । मुझे विश्वास है कि अब आपको धर्म का मर्म समझ में आ गया होगा" शुक्राचार्य जी ने अपनी बात समाप्त की । 

क्रमश : 

श्री हरि 
2.5.23 

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